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काजल का टीका लगाकर
मुझे सब से छुपाती थी
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे नजर से बचाती थी
कभी लोरी कभी कहानी
कभी थपकी भी दे जाती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे ही सुलाती थी
कभी लहंगा कभी फ्रॉक
कभी साड़ी भी पहनाती थी
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे ही सजाती थी
कभी गुड़िया कभी परी
कभी लाडो रानी भी वो कहती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे भी बुलाती थी
कभी गुलगुले कभी हलवा
कभी इडली डोसा भी बनाती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे मेरी पसंद का खाना खिलाती थी
कभी ठुमका कभी चुटकुले
कभी जोकर भी बन जाती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझ रोती को ऐसे भी हंसाती थी
न मामा न मौसी
न किसी सहेली के यहां जाने देती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे जमाने से बचाती थी
कभी अपर्णा कभी लक्ष्मीबाई
कभी नवदुर्गा की बात सुनाती थी
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे आत्म रक्षा सिखाती थी
कभी रोई कभी खोई
कभी दर्दों को छुपाती हूं
हाँ मेरी माँ
अब तेरी गुडिया ऐसे ही यादों में चुप सी रहती हूं
और जिंदगी को जीती हूं
– प्रमिला सैनी, कुरुक्षेत्र
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