है कौन ये स्त्री
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एक स्वर्णिम सितारा बन, जलती रहती है आकाश में,
सावन की बूंदों सी चमकती, रविवर्मा में खिलती,
चंचल सी लहरों की छाया, अपनी यादों में जलती।
वनमाली के हाथों से, खींची जाती है फूलों की तरह,
अपनी बेपनाह मोहब्बत से, जीवन को सजाती,
सुन्दरी बनाती है जग को, प्यारी है वह शायद हर एक को।
प्रेम की दो धाराओं में, बहती ज्वाला जैसी,
क्रोध की आग भी धरती पर, अपने प्यार की रक्षा में जलती।
माँ की गोदी सी आँचल में, छुपा है सबकी खुशियों का सागर,
अपनी संतानों की संवरती, हर मुश्किल को आसान बनाती।
अधिकारिणी की विद्या, बदल देती ज़माने की धारा,
कामयाबी की चोटी छूती, वह अपनी मेहनत से बनती।
विरासत को बाँधने वाली, समृद्धि की खेती करती,
सृष्टि की नायिका कहलाती, सबका आदर करती।
प्रकृति की रानी वह है, पालती सभी को प्यार से,
माँ भी उसका ही अवतार है, जननी सभी की संसार है।
समाज की मज़बूरियों को भी, उसने तोड़ दिया आज़ादी से,
निर्भय और साहसी वह है, स्त्री शक्ति का प्रतीक है।
अपने सपनों की उड़ान, उँचाईयों को छू रही है,
वो आज भी सृष्टि को, नव अभियान की सृजन कर रही है।
समाज को जाग्रत करती, अपनी ताकत से जान देती,
सबको एक साथ मिलकर, नए सवेरे की सृजन कर रही है।
उजालों की मिसाल वह है, सभी को रोशनी सिखाती,
प्रेम भाव की शिक्षिका है, हर दिल को प्यार से भर रही है।
समाज के हृदय में, बसती है वह खुशियों की धरा,
महिला एक वरदान है, जीवन की बहार है।
– अद्वैत वेदांत रंजन
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