जीने की ललक
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अफसोस अब होता है,
दिल जार-जार रोता है,
क्यूँ अनसुना कर दिया था उनको,
अजीजों का जख्म नासूर होता है!
तुम अवसाद में थे,
प्रत्यक्ष तौर पर,
कुछ बताना चाहते थे,
शायद दिल को,
हल्का करना चाहते थे !
हराकर मौत को,
जीने की ललक,
हाय ,
रोज हमें जोंक से,
हँसाने की तलब,
मुझसे की थी लिखने की अपील,
इंसान मरने से ना डरे,
सामने मौत हो फिर भी बेखौफ रहे डटे,
हर कोई हँसता रहे,
बुझे-बुझे से ना रहे..!
अब किसी की कोई भी तड़प ,
जानना चाहती हूँ,
अपने लोगों को सुनना चाहती हूँ,
अजीजों से रोज मिलना चाहती हूँ,
नासूर जख्म को भूलना चाहती हूँ |
– प्रतिभा पाण्डेय" चेन्नई
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