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मैं दूब सा रहना जानता हूं।
जमीं से जुड़ कर रहना जानता हूं।।
काटो,जला दो,फिर सुखा दो मुझको।
मैं फिर से उगना जानता हूं।।
मस्ती करते हैं बच्चे मुझी पर।
उनकी मुस्कान को अपना मानता हूं।।
ठूंठ पेड़ों से इंसान बिखर ही जाते हैं।
मैं तूफ़ानों में रहना जानता हूं।।
सकूं की तलाश में बैठते हैं कुछ युगल।
उनकी मोहब्बत को सुनना जानता हूं।।
मन के मैल का तो पता नहीं।
तन,हवन में पवित्र करना जानता हूं।।
अपनी रचनाओं को रखकर महफिलों में।
खुद को फकत आजमाना जानता हूं।।
जमाना मुझको "अजनबी" कहता रहे
मैं सबका अजीज बना जानता हूं।।
– आलोक अजनबी
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