Wednesday, 28 June 2023

वक्त लिखूं हालात लिखूं : पूनम सिंह भदौरिया

वक़्त लिखूँ, या हालात लिखूँ,
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वक़्त लिखूँ, या हालात लिखूँ,
दिल मे भरे जज़्बात लिखूँ।
जिंदगी कैसे कटी या कैसे जी पायी,
या फिर किस किसने दिए कितने आघात लिखूँ।।

मै हर रोज बैठकर के यही सोचा करूँ,
जख्म गहरे है इनको भला कैसे भरूं।
आँख के आँसुओ ने की कितनी बरसात लिखूँ,
या फिर उन आँसुओ पर हुए कितने सवालात लिखूँ।।

कोई अपना बनकर इस जिंदगी मे आके गया,
और कोई अपना नहीं होता ये भी समझाके गया।
जिंदगी है खुशनुमा या जीवन उदास लिखूँ,
या फिर कौन कितना गैर है और कौन कितना खास लिखूँ।।

मै लिखने अगर बैठूं तो समय का पता ना चले,
मै कितना सुबह लिखूँ और कितना लिखूँ शाम ढले।
किसी से पहली मुलाक़ात लिखूँ,
या फिर उससे मिली दर्द की सौगात लिखूँ।।

जिंदगी कैसे कटी या फिर कैसे जी पायी,
या फिर किस किसने दिए कितने आघात लिखूँ।।
                                 – पूनम सिंह भदौरिया
                     

Tuesday, 27 June 2023

प्यारा सा सपना : वर्षा श्रेयांस जैन


प्यारा सा सपना 
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इक प्यारा घर अपना सा
लगे जो सपना सा
दिखा जो सपने में 
वो सपना तो सपना था

सपने का हसीन नजारा था
महलों सा प्यारा था
बगिया थी फूलों की
कुक थी कोयलों की

झरना इक बहता था
सांझ की बेला में
जब चाँदनी भी आकर के
झरने में नहाती थी

चाँद भी शरमाता था
कुछ देर को छुप जाता था. 
पर चाँदनी को देखने 
धीरे से आ जाता था 

फूलों की बगिया, 
जब खुशबू बिखराती थी
सारे घर को महकाती थी
इक उमंग जगाती थी

पपीहा जब आता था
इक गीत गुनगुनाता था 
गीतों को सुनकर बादल भी आते थे, 
बरखा को लाते थे 

बूंदे जो पड़ती थी
धड़कन मचलती थी 
अपने में खोई मैं 
'पानी में कागज की कश्ती चलाती थी

महलों से प्यारा था 
सारे जग में न्यारा था 
वो प्यारा सा घर जो हमारा था 
खुली जो आँख, टूटा वो सपना था

थी न कागज की कश्ती
न घर था वो अपना 
दिखा जो सपना
न वा सपना था अपना 

न घर था वो अपना
कितना प्यारा था सपना
          – वर्षा श्रेयांस जैन 



दिल ने दिल से पूछा : सीता देवी



दिल ने दिल से पूछा
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दिल ने दिल से पूछा
कहां खो गए हो तुम?
दिल ने बोला,
रिश्ता जोड़ना चाहा दिल से,
प्रेम भरी बातें करना चाहा,
मीठी-मीठी सपने सजाना चाहा।

पर दिल ने कहा,
रिश्ता झूठा है,
प्रेम नहीं यह सब धोखा है,
यहां सपने कांच की तरह टूट जाती है,
चारों और भ्रष्टाचार दुराचार है,
और हाहाकार है।

फिर दिल ने बोला,
चाहत का रंग सच्चा होता है,
प्यार का संगीत शीतल होता है,
ख्वाबों में सजाया हुआ अरमान सुंदर होता है,
इश्क में ताकत होती है,
जीवन का आधार दिल होता है।

तब दिल ने कहा,
ठीक है दोस्त,
तुम जीते मैं हारा,
कुछ पाने के लिए कुछ खोना है,
अच्छे दिल सच्चे दिल से मिलता है।
               – सीता देवी , आसाम 


मैं दूब सा : आलोक अजनबी

मैं दूब सा
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मैं दूब सा रहना जानता हूं।
जमीं से जुड़ कर रहना जानता हूं।।
काटो,जला दो,फिर सुखा दो‌ मुझको।
मैं फिर से उगना जानता हूं।।

मस्ती करते हैं बच्चे मुझी पर।
उनकी मुस्कान को अपना मानता हूं।।
ठूंठ पेड़ों से इंसान बिखर ही जाते हैं।
मैं तूफ़ानों में रहना जानता हूं।।

सकूं की तलाश में बैठते हैं कुछ युगल।
उनकी मोहब्बत को सुनना जानता हूं।।
मन के मैल का तो पता नहीं।
तन,हवन में पवित्र करना जानता हूं।।

अपनी रचनाओं को रखकर महफिलों में।
खुद को फकत आजमाना जानता हूं।।
जमाना मुझको "अजनबी" कहता रहे
मैं सबका अजीज बना जानता हूं।।
                           – आलोक अजनबी


इतना सहज है क्या? : दीप्तिक कुमार दीप

इतना सहज है क्या?...
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इतना सहज है क्या?...
बैरल कुर्सी पर बैठ कर
कलम चलाना

इतना सहज है क्या?....
वैशाख माह की गर्म रातो मे
लम्बे समय तक जाग कर कविता लिखना

इतना सहज है क्या?...
दिन -रात हाथो मे कलम पकड़ कर
मन मे कविता लेखन के लिए
नए- नए विचार लाना

इतना सहज है क्या?...
चंद कविता लिख कर
बहुत सारे पैसों की चाहत रखना

इतना सहज है क्या?
उपन्यास लिख कर
लेखक कहलवाना

इतना सहज है क्या?
केवल नाम बता कर
किसी से अपना काम करवाना

इतना सहज है क्या...?
कविताओं मे दीप्तिक नाम कों
दीप से ख्यात करना

तुम सब समझते हो
उतना सहज है क्या......?
 – दीप्तिक कुमार मेघवाल दीप


मेरे सपने : पवन शर्मा

मेरे सपने
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मेरे सपनें तो कुछ और थे, मैं कर कुछ और रहा हूँ । 
नजर आती नहीं मंजिल, मैं फिर भी दौड़ रहा हूँ।

सुबह निकल जाता हूं. दिल में नई आस लिए। 
आंखें भर आती है मेरी, दर्द का वो एहसास लिए । 
खुद को खुद ही कोसकर, दिल अपना तोड़ रहा हूं। 
नजर आती नहीं मंजिल, मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

मैं दर दर भटकता हूँ, सपना साकार हो जाये।
दुनिया के आगे बहुत दिल ये लाचार हो जाये। 
मैं सोचता है अकेले में. क्या है जिसे छोड़ रहा हूँ। 
नजर आती नहीं मंजिल, मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

आग लगी है पेट में, पर जेब में पैसा नहीं है। 
जो तरस खाये मुझे पर, कोई इंसान ऐसा नहीं है। 
छाले पड़े हैं मेरे पांव में फटे जूतों को देख रहा हूँ। 
नजर आती नहीं मंजिल, मैं फिर भी दौड़ रहा हूं।

माना वक्त बुरा है लेकिन, हौसला अभी टूटा नहीं मेरा । 
पूरा भरोसा है खुद पर मुझे, अभी मुक्कदर रूठा नहीं मेरा । एक दिन किस्मत चमकेगी. ये सोचकर आगे बढ़ रहा हूँ।
                          – पवन शर्मा, गांव बलैण, हिमाचल प्रदेश



अन्नदाता : सीमा रंगा इंद्रा

अन्नदाता
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कच्चे, टेढ़े- मेढ़े रास्तों से होकर 
ले हल और बैल किसान आया है ।

बंजर जमीं पर करने कठोर परिश्रम 
लाने धरा की हरियाली आया है।

 चिलचिलाती धूप है चारों तरफ
 गर्मी की परवाह किए बिना आया है।

मेहनत करके उगाता अन्नदाता अन्न 
भरने पेट जगत का ये आया है ।

पाल पशुओं को देता दूध हमें 
पक्षियों का सच्चा साथी आया है ।

ठिठुरती ठंड में सो रहा जगत सारा 
लहराती फसल संभालने आया है।

 बिजली चमके, बादल गरजे अंबर में
 बिन डरे, बिन रुके पानी देने आया है ।

देख प्राकृतिक आपदा बेचारा रोया है
उठ फिर से, अन्न उगाने आया है ।

मेले, फटे- पुराने कपड़े पहन कर
किसान फसल कटाई करने आया है।

देख कठोर तप को इनके जगत
जय किसान का नारा लगाने आया है।

 जय जवान जय किसान 
                 – सीमा रंगा इन्द्रा , जींद , हरियाणा


मेरे पिता जी : कमल पटेल

मेरे पिता जी
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जिनके कारण बचा हुआ है,
          अब तक मेरा बचपन।
ना ही कुछ लाने की चिंता,
ना किसी को कुछ देने का टेंशन।।
जिनके आशीष की छाया में,
        ये जीवन मेरा बीता है।
मैं आज ये सबसे कहता हूं,
  हां! वही तो मेरे पिता है।।(१)

    मेरे जीवन के, जो है त्राण।
मुझमें बसते हैं, उनके प्राण।।
पिता से मिला,पुरखों का ज्ञान।
नाम से उन्हीं के,मिली पहचान।।
   जिनके मन में मेरे लिए,
      अथाह प्रेम और चिंता है।
मैं आज ये सबसे कहता हूं,
   हां! वही तो मेरे पिता है।।(२)

स्नेह का सागर, मेरे पिताजी।
    मेरा आदर्श, मेरे पिताजी।।
इस जीवन की पूंजी,मेरे पिताजी।
अनुभव की कुंजी, मेरे पिताजी।।
जिनका वचन ही मेरे लिए,
         रामायण और गीता है।
मैं आज ये सबसे कहता हूं।
  हां! वही तो मेरे पिता है।।(३)
               – कमल पटेल , चकरावदा


लव जिहाद – हरीश सोडानी

लव जिहाद                     
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सनातन संस्कृति से कैसा खिलवाड़ हो रहा है 
हर गली में क्यों लव जिहाद हो रहा है।                          

दरिंदों का हौंसला भी बुलन्द हो रहा है  
सच्चाई भी न्याय के लिए कानून के सामने रो रहा है 

राजनीतिक दल सरेआम अंगड़ाई मोल ले रहा है 
प्रशासन भी शर्मसार होकर छिप रहा है।

हिन्दुस्तान की भूमि पर कैसा कुकृत्य हो रहा है।
असभ्य हुई सोच का नग्न नृत्य हो रहा है 

पुलिस भी समझाकर मनचलों को हार गई है  
इश्क के इजहार को नजरों से मार गई है।

हर लड़का लड़की के पीछे दीवाना हो रहा है 
लानत ऐसी मानसिकता पर , शिष्टाचार तार-तार हो रहा है।

सदाचार के सिद्धांतों का दमन हो रहा है।
मार्डन युग देखो कैसा चमन हो रहा है।                                        

जिस्म के दीवानों का व्यापार फल फूल रहा है। 
देश पतन की गर्त में झूल रहा है
                  – युवा कवि शिक्षक हरीश सोडानी ( महू )



परिणाम घोषित

शीर्ष स्थान :– 🥇प्रथम पुरस्कार विजेता : अद्वैत वेदांत रंजन (राशि: ₹1001/–) 🥈द्वितीय पुरस्कार विजेता : सीमा रंगा इंद्रा एवं ज्ञ...