Sunday, 30 July 2023

कहानी पुरुषत्व की : ज्योत्सना चौहान


कहानी पुरुषत्व की
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दुनिया में आया मैं , दुनिया से गया मैं,
पर क्या थी कहानी मेरी? , क्या थी व्यथा मेरी ?
क्या सुनाऊं ? किसे सुनाऊं ? , क्या बताऊं ? किसे समझाऊं ?
स्वयं के अंतर्मन से लड़ रहा हूं, स्वयं ही संभल रहा हूं।

दुनिया ने समझदार बनाया, दुनिया ने जिम्मदार बनाया।
दुनिया ने बोझ डालें , दुनिया ने संयोग डालें ।।

किसी की कलाई का धागा हुआ , किसी की सारी का पल्लु हुआ ।
किसी के बुढ़ापे की लाठी हुआ तो किसी के जीवनसाथी का काठी हुआ ।।

हर रिश्ता मैंने बखूबी निभाया , अपनी हद से ज्यादा कर दिखाया।
पर क्या सब खुश हैं? क्या मैं खुश हूं?

समाज ने न बोलने दिया, समाज ने न जताने दिया ।
समाज ने न रोने दिया, समाज ने न खोने दिया ।

मेरे जीवन के हर पल को तराजू पर तौला,
मेरे हर सपने को गौरवता के मायने पर टटोला।

हर रिश्ते को नया नाम दिया , नया आकार दिया ।
पर बदले में किसी ने समानता का अधिकार न दिया ।।

न हम खुलकर कभी हंस सके, न रो सके, 
कोई हमसे तो पूछो , हमारी व्यथा तो समझो।

नहीं बनना समझदार , नहीं समझना कोई पाठ,
हर रिश्ते को खुल कर जीना है और लगानी है आसमान में एक छलांग।

जाना है बहुत दुर इस समाज से, 
जहां मेरे अस्तित्व का सम्मान हो,
न आशा हो, न अभिलाषा हो , सिर्फ प्रेम और सत्कार हो ।

पुरुष होना आसान नहीं , 
सबके लिए समान नहीं ।
                           – ज्योत्सना चौहान 

Wednesday, 26 July 2023

शीर्षक : जीवन यूं बीता जाता है... : ऐडवोकेट सारिका जैन शास्त्री

शीर्षक : जीवन यूं बीता जाता है...
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सुख दुख की इस धूप छाँव में,
तूँ क्यूँ रीता रह जाता है,
जीवन यूँ बीता जाता है ।

एक प्यारा सा शब्द है बचपन,
पंख लगा वह उड़ जाता है,
खेल,खिलौने, बिस्कुट, टॉफी 
सबके सब वह ले जाता है,
यौवन की वह दस्तक देकर
जोश नया इक भर जाता है,
जीवन यूँ बीता जाता है ।

उमंग और उत्साह से भरकर
यौवन सपने गढ़ जाता है,
नित नई मंज़िल को पाने
अधक परिश्रम कर जाता है,
जीवन की वो साँझ बताकर
अनुभव ढेरों दे जाता है,
जीवन यूँ बीता जाता है ।

ये कैसा पड़ाव उम्र का
आखिर तक साथ निभाता है,
क्या खोया-पाया जीवन भर
गणित यहीं तो लगता है,
लेकिन संग जो जाये उसके
ऐसा कुछ भी ना पता है,
बस रीता ही रह जाता है,
और जीवन यूँ बीता जाता है ।
                               – एडवोकेट सारिका जैन ‘शास्त्री’


Tuesday, 25 July 2023

माँ बिना सब सुना : प्रज्ञा अंकुर जैन

घर के आंगन में लगा
हरसिंगार का पेड़
एक छोटा सा पौधा 
मैंने अपने हाथों से लगाया था

अब घर की दीवारों - छतों से भी ऊंचा हो गया है।
इस हरसिंगार को देखकर 
मां तुम बहुत याद आती हो। 
कितना खुश होकर समेट लेती थी तुम ।

आंगन में बिखरे हुए फूलों को
देखो कितना फूल रहा है हरसिंगार
घर का आंगन फूलों से भरा पड़ा है
फिर भी कितना सूना है 

और सूना सूना सा है मन
तुम जो नहीं हो यहां,
इन फूलों को देखकर तुम कितना उत्साहित हो जाती
सोचकर बहुत उदास हूं मैं।

सारा घर खुशबू से महक रहा है
और वह खुशबू 
इस घर में बसी हुई तुम्हारी खुशबू से
मिल गई है
अब इन फूलों से तुम्हारी खुशबू आती है।

मैने फूलों को तस्वीरों में कैद कर लिया है
पर खुशबू को कैद करने के लिए 
मेरे पास कुछ नहीं है।
जब तक मौसम है फूलों का
इन्हे रोज महसूस करूगी मैं।
और तुम्हे महसूस करूंगी
हर मौसम में ।
          – प्रज्ञा अंकुर जैन



प्रणव ध्वनि : ज्योति जैन

भगवान की कीमत नहीं, 
श्रद्धा की कीमत है !

जब हृदय से श्रद्धा नहीं तो, 
साक्षात भगवान नहीं दिखते ॥

"जब हदय में श्रद्धा जाग जाये तो 
मंदिर में रखे पाषाण में भी भगवान दिखायी दे जाते है।

जब है आपके दिल में आस्था 
तभी होता है भगवान से वास्ता ।

जब रखोगे भगवान से वास्ता
तभी मिलेगा मोक्ष का रास्ता ।

भगवान के सामने जो झुकता है 
वह सबको अच्छा लगता है ।

पर जो सबके सामने झुकता है 
वह भगवान को अच्छा लगता है ।
                            – ज्योति जितेन्द्र जैन


Sunday, 23 July 2023

अभिलाषा : लिपिका मुखर्जी

अभिलाषा
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अभिलाषाएँ उड़ान भरने की, जैसे पंखों को उड़ान देने की,
मन की इच्छाएँ बादल बनकर, खुल कर बरसने की।

बीते लम्हों की छाया संग, धूप छाँव सा संवारने की,
जीवन की राहों पर नैया, आगे की ओर पार करने की।

सितारों से सजी आसमान, सपनों से आबाद करने की,
दिल की धड़कनों की गहराई, खोजते रास्ता नया बनाने की।

प्रेरणा के पंख लिए हम, आगे की ओर उड़ान भरने की,
अनमोल विचारों की धरती पर, खुदको फैलाकर रचने की।

सपने सच करने की भीड़ में, खुद को खोजने की खोज करें,
उधारनी ज़िन्दगी की उड़ान, पायें अपने रंग में रंग करें।

बदले भाग्य का सफर नया, जीवन की लहरों से टकराकर,
साहस से पंख फैलाएं हम, उड़ान भरें अपने सपनों की ऊँचाइयों को छू लें।
                        – लिपिका मुखर्जी

पत्नी: एक चांदनी रात की भावना : ज्ञानेन्द्र श्री चैतन्य



पत्नी: एक चांदनी रात की भावना
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सपनों की दुनिया की रानी,
मेरे दिल की राहत और अमानी।
विश्वास की दोपहरी, अनमोल सा खजाना,
पत्नी, मेरी प्रेम कहानी की भावना।

तुम एक गुलाब की मिसाल हो,
हर बाधा हर तकलीफ़ का हल हो।
मेरे मन की आराम की ओर,
प्यार का रंग तुम्हारे आँचल में बसा हो।

जैसे मीठे बच्चे को हो चाह,
तुम्हारे बिना मेरा जीवन विरान है।
धूप की तरह तपते दिनों में,
तुम छाँव की तरह हर पल बने मेरे साथ।

मेरे दिल की धड़कन, मेरी सांस,
ज़िंदगी का एक अनमोल हिस्सा हैं तुम।
प्यार की गहराई, सच्चे इश्क का पात्र,
तुम्हारे बिना, जीवन विरान सा लगता हैं हर बार।

जैसे मधुबन की रमणी भवना,
तुम्हारे संग में मिलती हैं सभी जिंदगी की राहत।
खिलते फूलों की तरह, मुस्कान भरी छोर,
तुम जीवन को चमकदार, सुंदर सा बनाती हो।

प्रेम की गर्माहट से सजी है तुम्हारी आँखें,
सपनों की मस्ती, भरे तुम जीवन को रंग।
तुम जीवन के रंगीन चित्र की मिसाल,
मेरे दिल की सहेली, अनमोल रत्न की भावना।

पत्नी: एक चांदनी रात की भावना,
मेरे दिल के किनारे की चाहत की मन्नत।
तुम्हारे बिना जीवन, बस एक अधूरा गीत,
तुम्हारी ममता से ही मिलता है सबको आनंद।।
                – ज्ञानेन्द्र श्री चैतन्य , उड़ीसा 

है कौन ये स्त्री : अद्वैत वेदांत रंजन


है कौन ये स्त्री 
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एक स्वर्णिम सितारा बन, जलती रहती है आकाश में,
सावन की बूंदों सी चमकती, रविवर्मा में खिलती,

चंचल सी लहरों की छाया, अपनी यादों में जलती।
वनमाली के हाथों से, खींची जाती है फूलों की तरह,

अपनी बेपनाह मोहब्बत से, जीवन को सजाती,
सुन्दरी बनाती है जग को, प्यारी है वह शायद हर एक को।

प्रेम की दो धाराओं में, बहती ज्वाला जैसी,
क्रोध की आग भी धरती पर, अपने प्यार की रक्षा में जलती।

माँ की गोदी सी आँचल में, छुपा है सबकी खुशियों का सागर,
अपनी संतानों की संवरती, हर मुश्किल को आसान बनाती।

अधिकारिणी की विद्या, बदल देती ज़माने की धारा,
कामयाबी की चोटी छूती, वह अपनी मेहनत से बनती।

विरासत को बाँधने वाली, समृद्धि की खेती करती,
सृष्टि की नायिका कहलाती, सबका आदर  करती।

प्रकृति की रानी वह है, पालती सभी को प्यार से,
माँ भी उसका ही अवतार है, जननी सभी की संसार है।

समाज की मज़बूरियों को भी, उसने तोड़ दिया आज़ादी से,
निर्भय और साहसी वह है, स्त्री शक्ति का प्रतीक है।

अपने सपनों की उड़ान, उँचाईयों को छू रही है,
वो आज भी सृष्टि को, नव अभियान की सृजन कर रही है।

समाज को जाग्रत करती, अपनी ताकत से जान देती,
सबको एक साथ मिलकर, नए सवेरे की सृजन कर रही है।

उजालों की मिसाल वह है, सभी को रोशनी सिखाती,
प्रेम भाव की शिक्षिका है, हर दिल को प्यार से भर रही है।

समाज के हृदय में, बसती है वह खुशियों की धरा,
महिला एक वरदान है, जीवन की बहार है।
                                   – अद्वैत वेदांत रंजन

Friday, 21 July 2023

प्रकृति : ऋषित श्रीवास्तव

प्रकृति
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प्रकृति का यह रूप निराला, कितना मनमोहक कितना प्यारा
सुबह-सवेरा जब हो जाता, सूरज अपना तेज फैलाता
बादल लहरा कर आता, इंद्रधनुष रंग बिखराता।

चिड़ियाँ की चहचहाहट से, चारों दिशाएँ गूंज जाती
कोयल जब गीत सुनाती, है हवाएँ भी मगन हो जाती।
तितलियाँ फूलों पर मंडरा कर, करती रहती अठखेलियाँ |

बारिश कहती ठुमक ठुमुक कर
हरियाली मेरी सहेलियाँ
फूलों से आती खुशबू,

ईश्वर का स्मरण कराती मंदिर के घंटों की ध्वनि,
रोम-रोम प्रफुल्लित कर जाती
तब मन कहता हे विधाता ! मनुष्य क्यों नहीं समझ पाता

प्रकृति का यह रूप निराला 
कितना मनमोहक कितना प्यारा
                           -ऋषित श्रीवास्तव


जागो कि हमको जगाती ये धरती : भारती नामदेव

   जागो कि हमको जगाती ये धरती
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                     जागो कि हमको जगाती ये धरती
                     ये कब थी चिखों से चित्कारती धरती
                     ये तो हे दुश्मन को ललकारती धरती। 
 देवों की धरती,यह मुनियों की धरती है।
धीरों की बस्ती,ये वीरों की बस्ती हैं।
वेदों की गंगा यहां,ऋषियों की कश्ती है।
डुबो दे जो हमको,यहां किसकी वो हस्ती है।
                      जागो कि हमको जगाती ये धरती
                      ये कब थी चिखों से चित्कारती धरती
                      ये तो हैं दुश्मन को ललकारती धरती।
राम की धरती,ये कृष्ण की धरती।
दुष्टों के सिर को,कुचलती ये धरती।
शुरों का अर्जन,यहां सिहों सा गर्जन हैं
छलता जो हमको, यहां उसका ही मर्दन है
                       जागो कि हमको जगाती ये धरती
                       ये कब थी चिखों से चित्कारती धरती
                       ये तो हैं दुश्मन को ललकारती धरती।
दुर्गा की धरती,ये काली की धरती।
जीवन प्रदाई जगदम्बा की धरती।
सीता की धरती,ये सावित्री की धरती।
मात्तृ स्वरुपा अपार शक्ति की धरती।
                       जागो कि हमको जगाती ये धरती
                       ये कब थी चिखों से चित्कारती धरती
                       ये तो हैं दुश्मन को ललकारती धरती।
आया तो था,एक सिकन्दर यहां भी।
पर चलती हैं कब,यहां आतातायी की मर्जी।
क्रूरों को ,सबक जो सिखाती ये धरती।
यही तो हैं हमारे स्वाभिमान की धरती।
                       जागो कि हमको जगाती ये धरती
                       ये कब थी चिखों से चित्कारती धरती
                       ये तो हैं दुश्मन को ललकारती धरती।
धीर भरी ,वसुधेव की धरती।
विश्व कुटुम्ब आधार की धरती।
पर घात सहे क्यों,ये हैं वीरों धरती।
ऐसी हैं ये, सद्चरितों की धरती।
                      जागो कि हमको जगाती ये धरती
                      ये कब थी चिखों से चित्कारती धरती
                      ये तो थी दुश्मन को ललकारती धरती।
अब हटा दो दिलों से ये कायरता के पहरे।
फिर सजा दो सरो पे वो वीरता के सहरे।
कि विश्व गुरु थे ,फिर विश्व गुरु बन।
 रचा दो वही स्वर्णिम इतिहास की धरती।
                                       –भारती नामदेव



Thursday, 20 July 2023

वो अपनी मनमानी करती है : बलवंत सिंह राणा

वो अपनी मनमानी करती
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वो अपनी मनमानी करती
फिर भी अच्छी लगती
डाांट जब भी लगती
माां की झलक दिखलाती

नजरों में प्यार भरा जैसे
जीवन को रोशन कर देती
बचपन लौट आता 
जब वो मुस्कुराती

अपना हुकुम नित चलाती सब पर
लेकिन जब वो आांगन में नहीं दिखती
सूना सारा आांगन लगता पल भर में
उसके आने से जीवन में प्राण आते

वो जब भी आती मेरे आांगन में
चारो तरफ खुशियां लेकर आती
                     – बलवंत सिंह राणा


Wednesday, 12 July 2023

प्रियतम का इंतजार : सपना प्रजापति

प्रियतम का इंतजार
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मेरी आत्मा ने रंग, बारिश की बूंदो संग
महसूस किया जिसे
सर्द हवाओ के झोके, वही गीत गा रहे है।
श्रृंगार करती वृक्षों की लताएँ,

रंग-बिरंगे फूलो के आभूषण धारण
उनके इंतजार में प्रकृति को सजा रहे है।
यहाँ कण-कण प्यासा है,
जिनके दीदार को

ये मेघ उन्ही के आने का
पैगाम ला रहे है 
जिनके नाम से चलती है- साँसे मेरी,
वही प्रियतम आनंदित हो, चले आ रहे है।

जिनका पार न पाया कोई
जो अनंत, अविनाशी है।
जिनके दीदार को ये अखियाँ, 
जन्मों की प्यासी है। 

वही मेरे शिव परमपिता परमेश्वर मेरे महादेव
मेरे सावन के आनंद रूप में चले आ रहे हैं
                      – सपना प्रजापति


Friday, 7 July 2023

मौत जैसे माँ: पुष्पा सिंह "अचला"

मौत जैसे माँ 
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ए मौत! जैसी भी है तू बड़ी प्यारी है 
माँ जैसी तू भी दुनिया से बड़ी न्यारी है 

जीवन रूपी नैया में कष्ट भरे हैं अनंत 
मृत्यु रूपी सैया में सब कष्टों का है अंत 

कब किस पल तू आएगी नहीं किसी को बोध 
विन मोह माया के हरे प्राण वृद्ध जवाँ अबोध 

भाग रहे हैं जो तुझ से उन्हें गले लगाती है 
बुला रहे हैं जो तुझे उन्हें और तड़पाती है

चुपके से आ कर धीरे से कब अपना बनती है 
माँ बन कर अपने आगोश में गहरी नींद सुलाती है 

संघर्ष भरे जीवन का तू ही है अंतिम विराम
 आत्मा की नव यात्रा पुनः चली अविराम 

 तेरी लीला तू ही जाने कब किस पर आएगी
 तेरी राह तके "अचला" कब मुझे गले लगाएगी 
                                          – पुष्पा सिंह "अचला" 
                                             मध्यप्रदेश , भोपाल


Wednesday, 5 July 2023

जीने की ललक : प्रतिभा पाण्डेय

जीने की ललक 
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अफसोस अब होता है,
दिल जार-जार रोता है,
क्यूँ अनसुना कर दिया था उनको,
अजीजों का जख्म नासूर होता है!
तुम अवसाद में थे,
प्रत्यक्ष तौर पर,
कुछ बताना चाहते थे,
शायद दिल को,
हल्का करना चाहते थे !
हराकर मौत को,
जीने की ललक,
हाय ,
रोज हमें जोंक से,
हँसाने की तलब,
मुझसे की थी लिखने की अपील,
इंसान मरने से ना डरे,
सामने मौत हो फिर भी बेखौफ रहे डटे,
हर कोई हँसता रहे,
बुझे-बुझे से ना रहे..!
अब किसी की कोई भी तड़प ,
जानना चाहती हूँ,
अपने लोगों को सुनना चाहती हूँ,
अजीजों से रोज मिलना चाहती हूँ,
नासूर जख्म को भूलना चाहती हूँ |
             – प्रतिभा पाण्डेय" चेन्नई 



Monday, 3 July 2023

आगाज : सूर्यबाला मिश्रा ‘अपराजिता’

आगाज
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जियो ऐसे वतन की 
सरपरस्ती में लहू का एक कतरा 
भी गिरे आगाज हो जाए !
ग़ुलामी के शिकंजे से निकलने 
की इबादत से 
ये मिट्टी चूम कह दो वहीं 
आगाज हो जाए !

मुकद्दर है भला अपना 
जन्म भारत में पाए हैं 
बना दो शान मिट्टी की 
और एक आगाज हो जाये !

जहाँ नदियों को पूजा और 
उनको माँ कहा जाये 
उसी धरती को पूजो 
और एक आगाज हो जाये !

यहाँ श्रीराम और श्रीकृष्ण का 
आना हुआ जैसे 
बनो आदर्श तुम ऐसे 
की एक आगाज हो जाये !

कलम कलाम के जैसी 
यहाँ टैगोर की छवि है
निराला और दिनकर की तरह 
इस देश में कवि हैं 
भुलाकर खुद को तुम खोजो 
और एक आगाज हो जाये!
             – सूर्यबाला मिश्रा "अपराजिता"



Sunday, 2 July 2023

नौ सेना की बेटियां : के. पी. एस. चौहान

नौंसेना की बेटियां
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माई का दुध तो खूब पिया,
अब गाय का दूध पिया करो।
यूं मर-मर के क्या जीना,
ज़रा शेरों की तरह जिया करो।।

अनेक लोग आऐ, 
और चले गए इस दुनिया से ।
मरके भी हो जाए अमर नाम, 
काम कोई ऐसा किया करो।।

यूं मर-मर के क्या जीना,
जरा शेरनियों की तरह जिया करो।।

नौसेना की बेटियां,
         मां भारती की बिंदी है।
कोई दुश्मन सीमां मैं घूस नहीं पाएगा।
    जब तलक ये शेरनियां जिद्दी है।।

हमने तो सिर्फ घूंघट हटाया है सिर से ,
       मान-मर्यादा नहीं तोड़ेंगे।
किसी जालिम ने बुरी नजर,
         जो हम पर डाली।
  उसकी दोनों आंखें फोड़ेंगे।।

सरहद की तरफ जो कदम बढ़ाए तो ,
     उसकी दोनों टांगे तोड़ेंगे।
बार-बार जो सिर उठाया तो,
        गर्दन उसकी मरोडेंगें ।।

गाड़ देंगें जिंदा जमीन में,
उसको कहीं का नहीं छोड़ेंगे।

चूड़ियां पहनना छोड़कर 
इन हाथों में अब कृपाण हमने उठाई है।
मां भारती की रक्षा करने की 
कसम हमने खाई है।।

तिरंगे की तरफ जो उंगली उठाई तो 
हम हाथ उसका काटेंगे।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर-जमीं को 
हम नर-मुंडो से पाटेंगे।।

हम जिएंगे या मरेंगे 
आजाद हमारा वतन होगा।
होगा नाम शहीदों में 
और तिरंगा हमारा कफन होगा।।

तिरंगा हमारा कफन होगा।
तिरंगा हमारा कफन होगा।।
        – आशु कवि के. पी. एस. , चौहान


हाँ मेरी माँ : प्रमिला सैनी

हाँ मेरी माँ
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काजल का टीका लगाकर
मुझे सब से छुपाती थी
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे नजर से बचाती थी

कभी लोरी कभी कहानी
कभी थपकी भी दे जाती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे ही सुलाती थी

कभी लहंगा कभी फ्रॉक
कभी साड़ी भी पहनाती थी
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे ही सजाती थी

कभी गुड़िया कभी परी
कभी लाडो रानी भी वो कहती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे भी बुलाती थी

कभी गुलगुले कभी हलवा
कभी इडली डोसा भी बनाती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे मेरी पसंद का खाना खिलाती थी

कभी ठुमका कभी चुटकुले
कभी जोकर भी बन जाती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझ रोती को ऐसे भी हंसाती थी

न मामा न मौसी
न किसी सहेली के यहां जाने देती थीं
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे जमाने से बचाती थी

कभी अपर्णा कभी लक्ष्मीबाई
कभी नवदुर्गा की बात सुनाती थी
हाँ मेरी माँ
मुझे ऐसे आत्म रक्षा सिखाती थी

कभी रोई कभी खोई 
कभी दर्दों को छुपाती हूं 
हाँ मेरी माँ
अब तेरी गुडिया ऐसे ही यादों में चुप सी रहती हूं
और जिंदगी को जीती हूं
                  – प्रमिला सैनी, कुरुक्षेत्र


परिणाम घोषित

शीर्ष स्थान :– 🥇प्रथम पुरस्कार विजेता : अद्वैत वेदांत रंजन (राशि: ₹1001/–) 🥈द्वितीय पुरस्कार विजेता : सीमा रंगा इंद्रा एवं ज्ञ...