कहानी पुरुषत्व की
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दुनिया में आया मैं , दुनिया से गया मैं,
पर क्या थी कहानी मेरी? , क्या थी व्यथा मेरी ?
क्या सुनाऊं ? किसे सुनाऊं ? , क्या बताऊं ? किसे समझाऊं ?
स्वयं के अंतर्मन से लड़ रहा हूं, स्वयं ही संभल रहा हूं।
दुनिया ने समझदार बनाया, दुनिया ने जिम्मदार बनाया।
दुनिया ने बोझ डालें , दुनिया ने संयोग डालें ।।
किसी की कलाई का धागा हुआ , किसी की सारी का पल्लु हुआ ।
किसी के बुढ़ापे की लाठी हुआ तो किसी के जीवनसाथी का काठी हुआ ।।
हर रिश्ता मैंने बखूबी निभाया , अपनी हद से ज्यादा कर दिखाया।
पर क्या सब खुश हैं? क्या मैं खुश हूं?
समाज ने न बोलने दिया, समाज ने न जताने दिया ।
समाज ने न रोने दिया, समाज ने न खोने दिया ।
मेरे जीवन के हर पल को तराजू पर तौला,
मेरे हर सपने को गौरवता के मायने पर टटोला।
हर रिश्ते को नया नाम दिया , नया आकार दिया ।
पर बदले में किसी ने समानता का अधिकार न दिया ।।
न हम खुलकर कभी हंस सके, न रो सके,
कोई हमसे तो पूछो , हमारी व्यथा तो समझो।
नहीं बनना समझदार , नहीं समझना कोई पाठ,
हर रिश्ते को खुल कर जीना है और लगानी है आसमान में एक छलांग।
जाना है बहुत दुर इस समाज से,
जहां मेरे अस्तित्व का सम्मान हो,
न आशा हो, न अभिलाषा हो , सिर्फ प्रेम और सत्कार हो ।
पुरुष होना आसान नहीं ,
सबके लिए समान नहीं ।
– ज्योत्सना चौहान